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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन

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सुमन झोंपड़े में चली गई, तो सदन धीरे-धीरे शान्ता के सामने आया और कांपते हुए स्वर से बोला– शान्ता।

यह कहते-कहते उसका गला रुंध गया।

शान्ता प्रेम से गद्गद् हो गई। उसका प्रेम उस विरत दशा को पहुंच गया, जब वह संकुचित स्वार्थ से मुक्त हो जाता है।

उसने मन में कहा, जीवन का क्या भरोसा है? मालूम नहीं, जीती रहूं या न रहूं, इनके दर्शन फिर हों या न हों, एक बार इनके चरणों पर सिर रखकर रोने की अभिलाषा क्यों रह जाए? इसका इससे उत्तम और कौन-सा अवसर मिलेगा? स्वामी! तुम एक बार अपने हाथों से उठाकर मेरे आंसू पोंछ दोगे, तो मेरा चित्त शांत हो जाएगा, मेरा जन्म सफल हो जाएगा। मैं जब तक जीऊंगी, इस सौभाग्य के स्मरण का आनंद उठाया करूंगी। मैं तो तुम्हारे दर्शनों की आशा ही त्याग चुकी थी, किंतु जब ईश्वर ने यह दिन दिखा दिया, तब अपनी मनोकामना क्यों न पूरी कर लूं? जीवनरूपी मरुभूमि में यह वृक्ष मिल गया है, तो इसकी छांह में बैठकर क्यों न अपने दग्ध हृदय को शीतल कर लूं।

यह सोचकर शान्ता रोती हुई सदन के पैरों पर गिर पड़ी, किंतु मुरझाया हुआ फूल हवा का झोंका लगते ही बिखर गया। सदन झुका कि उसे उठाकर छाती से लगा ले, चिपटा ले, लेकिन शान्ता की दशा देखकर उसका हृदय विकल हो गया। जब उसने उसे पहले-पहल नदी के किनारे देखा था, तब वह सौंदर्य की एक नई कोमल कली थी, पर आज वह एक सूखी हुई पीली पत्ती थी, जो बसंत ऋतु में गिर पड़ी है।

सदन का हृदय नदीं में चमकती हुई चन्द्र-किरणों के सदृश थरथराने लगा। उसने कांपते हुए हाथों से उस संज्ञाशून्य शरीर को उठा लिया। निराश अवस्था में उसने ईश्वर की शरण ली। रोते हुए बोला– प्रभो, मैंने बड़ा पाप किया है, मैंने एक कोमल संतप्त हृदय को बड़ी निर्दयता से कुचला है, पर इसका यह दंड़ असह्य है। इस अमूल्य रत्न को इतनी जल्दी मुझसे मत छीनो। तुम दयाराम हो, मुझ पर दया करो।

शान्ता को छाती से लगाए हुए सदन झोंपडी में गया और उसे पलंग पर लिटाकर, शोकातुर स्वर से बोला– सुमन, देखो, यह कैसी हुई जाती है। मैं डाक्टर के पास दौड़ा जाता हूं।

सुमन ने समीप आकर बहन को देखा। माथे पर पसीने की बूंदे आ गई थीं, आंखें पथराई हुईं। नाड़ी का कहीं पता नहीं। मुख वर्णहीन हो गया था। उसने तुरंत पंखा उठा लिया और झलने लगी। वह क्रोध जो शान्ता की दशा देख-देखकर महीनों से उसके दिल में जमा हो रहा था, फूट निकला। सदन की ओर तिरस्कारपूर्ण नेत्रों से देखकर बोली– यह तुम्हारे अत्याचार का फल है, यह तुम्हारी करनी है, तुम्हारे ही निर्दय हाथों ने इस फल को यों मसला है। तुमने अपने पैरों से इस पौधे को यों कुचला है। लो, अब तुम्हारा गला छूटा जाता है। सदन, जिस दिन से इस दुखिया ने तुम्हारी वह अभिमान भरी बातें सुनीं, इसके मुख पर हंसी नहीं आई, इसके आंसू कभी नहीं थमे। बहुत गला दबाने से दो-चार कौर खा लिया करती थी। और तुमने उसके साथ यह अत्याचार केवल इसलिए किया कि मैं उसकी बहन हूं, जिसके पैरों पर तुमने बरसों नाक रगड़ी है, जिसके तलुवे तुमने बरसों सहलाए हैं। जिसके प्रेम में तुम महीनों मतवाले हुए रहते थे। उस समय भी तो तुम अपने मां-बाप के आज्ञाकारी पुत्र थे या कोई और थे? उस समय भी तो तुम वही उच्च कुल के ब्राह्मण थे या कोई और थे? तब तुम्हारे दुष्कर्मों से खानदान की नाक न कटती थी? आज तुम आकाश के देवता बने फिरते हो। अंधेरे में जूठा खाने पर तैयार, पर उजाले में निमंत्रण भी स्वीकार नहीं। यह निरी धूर्त्तता है, दगाबाजी है। जैसा तुमने इस दुखिया के साथ किया है, उसका फल तुम्हें ईश्वर देंगे। इसे जो कुछ भुगतना था, वह भुगत चुकी। आज न मरी, कल मर जाएगी, लेकिन तुम इसे याद करके रोओगे। कोई और स्त्री होती, तो तुम्हारी बातें सुनकर फिर तुम्हारी ओर आंख उठाकर न देखती, तुम्हें कोसती, लेकिन यह अबला सदा तुम्हारे नाम पर मरती रही। लाओ, थोड़ा ठंडा पानी।

सदन अपराधी की भांति सिर झुकाए ये बातें सुनता रहा। इससे उसका हृदय कुछ हल्का हुआ। सुमन ने यदि उसे गालियां दी होतीं, तो और भी बोध होता। वह अपने को इस तिरस्कार के सर्वथा योग्य समझता था।

उसने ठंडे पानी का कटोरा सुमन को दिया और स्वयं पंखा झलने लगा। सुमन ने शान्ता के मुंह पर पानी के कई छींटे दिए। इस पर जब शान्ता ने आंखें न खोलीं, तब सदन बोला– जाकर डाक्टर को बुला लाऊं न?

सुमन– नहीं, घबराओ मत। ठंडक पहुंचते ही होश आ जाएगा। डाक्टर के पास इसकी दवा नहीं।

सदन को कुछ तसल्ली हुई, बोला– सुमन, चाहे तुम समझो कि मैं बात बना रहा हूं, लेकिन मैं तुमसे सत्य कहता हूं कि उसी मनहूस घड़ी से मेरी आत्मा को कभी शांति नहीं मिली। मैं बार-बार अपनी मूर्खता पर पछताता था। कई बार इरादा किया कि चलकर अपना अपराध क्षमा कराऊं, लेकिन यही विचार उठता कि किस बूते पर जाऊं? घरवालों से सहायता की कोई आशा न थी, और मुझे तो तुम जानती ही हो कि सदा कोतल घोड़ा बना रहा। बस, इसी चिंता में डूबा रहता था कि किसी प्रकार चार पैसे पैदा करूं और अपनी झोंपड़ी अलग बनाऊं। महीनों नौकरी की खोज में मारा-मारा फिरा, कहीं ठिकाना न लगा। अंत को मैंने गंगा-माता की शरण ली और अब ईश्वर की दया से मेरी नाव चल निकली है। अब मुझे किसी सहारे या मदद की आवश्यकता नहीं है। यह झोंपड़ी बना ली है, और विचार है कि कुछ रुपए और आ जाएं, तो उस पार किसी गांव में एक मकान बनवा लूं। क्योंकि, इनकी तबीयत कुछ संभलती मालूम होती है?

सुमन का क्रोध शांत हुआ। बोली– हां, अब कोई भय नहीं है, केवल मूर्च्छा थी। आंखें बंद हो गईं और होठों का नीलापन जाता रहा।

सदन को ऐसा आनंद हुआ कि यदि वहां ईश्वर की कोई मूर्ति होती, तो उसके पैरों पर सिर रख देता। बोला– सुमन, तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है, उसको मैं सदा याद करता रहूंगा। अगर और कोई बात हो जाती, तो इस लाश के साथ मेरी लाश भी निकलती।

सुमन– यह कैसी बात मुंह से निकालते हो। परमात्मा चाहेंगे तो यह बिना दवा के अच्छी हो जाएगी और तुम दोनों बहुत दिनों तक सुख से रहोगे। तुम्हीं उसकी दवा हो। तुम्हारा प्रेम ही उसका जीवन है, तुम्हें पाकर अब उसे किसी वस्तु की लालसा नहीं है। लेकिन अगर तुमने भूलकर भी उसका अनादर या अपमान किया, तो फिर उसकी यही दशा हो जाएगी और तुम्हें हाथ मलना पड़ेगा।

इतने में शान्ता ने करवट बदली और पानी मांगा। सुमन ने पानी का गिलास उसके मुंह से लगा दिया। उसने दो-तीन घूंट पीया और फिर चारपाई पर लेट गई। वह विस्मित नेत्रों से इधर-उधर ताक रही थी, मानो उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं है। वह चौंककर उठ बैठी और सुमन की ओर ताकती हुई बोली– क्यों, यही मेरा घर है न? हां-हां, यही है, और वह कहां हैं मेरे स्वामी, मेरे जीवन के आधार! उन्हें बुलाओ, आकर मुझे दर्शन दें, बहुत जलाया है, इस दाह को बुझाएं। मैं उनसे कुछ पूछूंगी। क्या नहीं आते? तो लो, मैं ही चलती हूं। आज मेरी उनसे तकरार होगी। नहीं, मैं उनसे तकरार न करूंगी, केवल यही कहूंगी कि अब मुझे छोड़कर कहीं मत जाओ। चाहे गले का हार बनाकर रखो, चाहे पैरों की बेड़ियां बनाकर रखो, पर अपने साथ रखो। वियोग-दुख अब नहीं सहा जाता। मैं जानती हूं कि तुम मुझसे प्रेम करते हो। अच्छा, न सही, तुम मुझे नहीं चाहते, मैं तुम्हें चाहती हूं। अच्छा, यह भी न सही, मैं भी तुम्हें नहीं चाहती, मेरा विवाह तो तुमसे हुआ है, नहीं, नहीं हुआ! अच्छा कुछ न सही, मैं तुमसे विवाह नहीं करती, लेकिन मैं तुम्हारे साथ रहूंगी और अगर तुमने आंख फेरी तो अच्छा न होगा। हां, अच्छा न होगा, मैं संसार में रोने के लिए नहीं आई हूं। प्यारे, रिसाओ मत। यही होगा, दो-चार आदमी हंसेंगे, ताने देंगे। मेरी खातिर उसे सह लेना। क्या मां-बाप छोड़ देंगे, कैसी बात कहते हो? मां-बाप अपने लड़के को नहीं छोड़ते। तुम देख लेना, मैं उन्हें खींच लाऊंगी, मैं अपनी सास के पैर धो-धो पीऊंगी, अपने ससुर के पैर दबाऊंगी, क्या उन्हें मुझ पर दया न आएगी? यह कहते-कहते शान्ता की आंखें फिर बंद हो गई।

सुमन ने सदन से कहा– अब सो रही है, सोने दो। एक नींद सो लेगी, तो उसका जी संभल जाएगा। रात अधिक बीत गई है, अब तुम भी घर जाओ, शर्माजी बैठे घबराते होंगे।

सदन– आज न जाऊंगा।

सुमन– नहीं-नहीं, वे लोग घबराएंगे। शान्ता अब अच्छी है, देखो, कैसे सुख से सोती है। इतने दिनों में आज ही मैंने उसे यों सोते देखा है। सदन नहीं माना, वहीं बरामदे में आकर चौकी पर लेट रहा और सोचने लगा।

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